जनता का असंतोष: दुनिया इस समय कट्टरवाद और हिंसा से जूझ रही है ऐसे में गाँधी जी के अहिंसा का सिधांत कमज़ोर पड़ता दिख रहा है लोग उन्मादी भीड़ में तब्दील हो गये है और हर तरफ आक्रोश की छोटी सी चिंगारी भी एक बड़ी आग का रूप ले रही है फ्रांस से लेकर अमेरिका तक सब इसकी जद में है एशिया भी इससे जूझ रहा है|
सदी के अंत में दुनिया भर के नेता और विचारक यह मानने लगे थे कि वैश्वीकरण, लोकतंत्र और तेज़ी से बढ़ती तकनीक मानव समाज को अधिक स्थिर और सुरक्षित बना देंगे। लेकिन इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के बाद से तस्वीर उलटी दिख रही है। कहीं सड़कों पर प्रदर्शनकारी टायर जला रहे हैं, कहीं संसद पर भीड़ हमला कर रही है, तो कहीं सेना सत्ता पर कब्ज़ा कर रही है। फ्रांस में हालिया प्रदर्शन, अमेरिका में लगातार गोलीबारी और एशिया के देशों में बार-बार उभरते तख़्तापलट इस वैश्विक बेचैनी के प्रतीक बन गए हैं।
फ्रांस: सड़कों पर गुस्सा और असुरक्षा
फ्रांस इन दिनों एक अजीब दुविधा में है। एक ओर वह यूरोप की प्रमुख लोकतांत्रिक ताक़त है, दूसरी ओर वहाँ की जनता को यह लगने लगा है कि सरकार उनकी बात सुनने से कतराती है। हालिया दिनों में जिस आंदोलन ने पूरे देश को झकझोर दिया, उसकी मूल वजहें सिर्फ़ राजनीतिक नहीं थीं—यह आर्थिक और सामाजिक संकट की देन भी हैं।
बेरोज़गारी में इज़ाफ़ा, जीवन-यापन की बढ़ती लागत और सरकारी सेवाओं में कटौती ने आम आदमी की ज़िंदगी कठिन बना दी है। जब सरकार ने खर्चों में कटौती की नई नीतियाँ लागू कीं तो लोगों ने इसे अपनी रोज़मर्रा की सुविधाओं पर हमला समझा। इस आक्रोश ने धीरे-धीरे हिंसक रूप लेना शुरू कर दिया। रेलमार्ग अवरुद्ध हुए, बसें जलाई गईं और पुलिस के साथ झड़पें बढ़ीं।
यह गुस्सा पूरी तरह बेबुनियाद नहीं है। जब किसी समाज का मध्यम वर्ग अपने भविष्य को असुरक्षित महसूस करता है, तो वह व्यवस्था के खिलाफ खड़ा हो जाता है। हालाँकि, यह भी सच है कि कई जगहों पर आंदोलन में शामिल चरमपंथी तत्वों ने हिंसा को हवा दी, जिससे असली मुद्दे पीछे छूटते चले गए।
अमेरिका: गोलीबारी और राजनीतिक विभाजन
जनता का असंतोष: अटलांटिक के उस पार अमेरिका की हालत भी कम चिंताजनक नहीं है। वहाँ का सबसे बड़ा संकट है—बढ़ती गोलीबारी और राजनीतिक हिंसा। हर कुछ दिन में किसी न किसी शहर से गोलीबारी की ख़बर आती है, और हर बार बहस उठती है कि हथियार नियंत्रण पर सख़्त क़दम क्यों नहीं उठाए जाते।
अमेरिकी समाज आज तीखे वैचारिक ध्रुवीकरण से गुज़र रहा है। एक ओर कट्टर दक्षिणपंथी विचारधारा है जो परंपरा और हथियार रखने के अधिकार पर ज़ोर देती है, दूसरी ओर उदारवादी तबका है जो सामाजिक न्याय और बराबरी की मांग करता है। दोनों के बीच खिंचाव इतना बढ़ चुका है कि सोशल मीडिया से लेकर चुनाव तक सब जगह ज़हर घुला हुआ है।
आर्थिक असमानता ने भी इस आग में घी का काम किया है। शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की ऊँची लागत ने निम्न और मध्यम वर्ग को हाशिए पर पहुँचा दिया है। ऐसे हालात में जब लोगों को लगता है कि लोकतंत्र उनकी बात सुन ही नहीं रहा, तो असंतोष हिंसक रूप ले लेता है।
यह असंतोष वास्तविक है, लेकिन इसकी अभिव्यक्ति अक्सर गलत दिशा में चली जाती है। गोलीबारी की घटनाएँ किसी समस्या का हल नहीं हैं, बल्कि वे समाज की बीमारियों को और गहरा कर देती हैं।
एशिया: तख़्तापलट और राजनीतिक अस्थिरता
एशिया में स्थिति और भी जटिल है। कई देशों में लोकतंत्र अभी पूरी तरह स्थिर नहीं हो पाया है। यहाँ भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और सरकारी तंत्र की अक्षमता लोगों को लगातार निराश कर रही है।
नेपाल इसका ताज़ा उदाहरण है। वहाँ सरकार द्वारा सोशल मीडिया पर रोक लगाने की कोशिश ने युवाओं में गुस्सा भड़का दिया। यह सिर्फ़ इंटरनेट की आज़ादी का सवाल नहीं था, बल्कि इससे गहरे बैठे असंतोष को आवाज़ मिल गई। लोग सड़कों पर उतरे और अंततः प्रधानमंत्री को पद छोड़ना पड़ा।
म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों में तो सेना की भूमिका पहले से ही मज़बूत रही है। म्यांमार 2021 के तख़्तापलट के बाद से लगातार अस्थिर है और नागरिक युद्ध जैसी स्थिति बनी हुई है। थाईलैंड में भी सेना और राजनीति के बीच का संघर्ष लोकतंत्र को असुरक्षित बनाए हुए है।
इन देशों के उदाहरण दिखाते हैं कि जब जनता को लगता है कि उनकी ज़रूरतें पूरी नहीं हो रहीं और उनकी आवाज़ दबाई जा रही है, तो वे या तो सड़कों पर उतरते हैं या फिर सत्ता परिवर्तन की उम्मीद में सेना का समर्थन करते हैं। लेकिन तख़्तापलट कभी स्थायी समाधान नहीं देता, बल्कि नई समस्याओं को जन्म देता है।
असंतोष की जड़ें कहाँ हैं?
- आर्थिक दबाव: महँगाई, बेरोज़गारी और अवसरों की कमी सबसे बड़ा कारण है।
- सामाजिक असमानता: एक छोटा वर्ग संसाधनों पर कब्ज़ा जमाए है जबकि बहुसंख्यक वर्ग वंचित है।
- राजनीतिक अविश्वास: जनता को लगता है कि नेता सिर्फ़ अपने हित देखते हैं, जनता के हित नहीं।
- सांस्कृतिक और वैचारिक संघर्ष: पहचान, धर्म और विचारधारा के सवालों ने समाजों को बाँट दिया है।
- सूचना क्रांति: सोशल मीडिया ने असंतोष को आवाज़ दी है, लेकिन साथ ही गलत सूचनाओं और अफवाहों ने आग को और भड़काया है।
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कितना जायज़, कितना ग़लत?
:जनता का असंतोष: यह कहना मुश्किल है कि जनता का असंतोष पूरी तरह सही है या पूरी तरह ग़लत। सही इसलिए कि बुनियादी ज़रूरतें और अधिकार जब पूरे नहीं होते तो गुस्सा उठना स्वाभाविक है। ग़लत इसलिए कि इस गुस्से को हिंसा, हत्या और तख़्तापलट की शक्ल में व्यक्त करना किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए घातक है।
जनता का असंतोष: आगे की राह
- सरकारों को चाहिए कि जनता की वास्तविक चिंताओं को सुने और सिर्फ़ सुरक्षा बलों के सहारे असंतोष को दबाने की कोशिश न करें।
- आर्थिक न्याय सुनिश्चित करना ज़रूरी है—रोज़गार सृजन, स्वास्थ्य और शिक्षा पर निवेश, महँगाई पर नियंत्रण।
- राजनीतिक पारदर्शिता और भ्रष्टाचार पर सख़्त कार्रवाई से विश्वास लौट सकता है।
- जनता को भी चाहिए कि अपने विरोध को शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक दायरे में रखें। हिंसा से समाधान नहीं निकलता।
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फ्रांस से लेकर अमेरिका और एशिया तक—हर जगह जनता की बेचैनी का रूप अलग है, लेकिन कारण लगभग एक जैसे हैं। आर्थिक दबाव, सामाजिक असमानता और राजनीतिक अविश्वास ने जनता को सड़कों पर ला खड़ा किया है। यह संकेत है कि लोकतंत्र और शासन की बुनियादी संरचना में सुधार की ज़रूरत है।
हिंसा और तख़्तापलट किसी समस्या का स्थायी हल नहीं, बल्कि नई जटिलताओं की शुरुआत होते हैं। असली रास्ता संवाद, सुधार और जनता को भरोसे में लेने में है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो आने वाले वर्षों में यह असंतोष और भी भयावह रूप ले सकता है।